Wednesday 16 July 2014

भारतीय भाषा

भारतीय भाषा

नीति-नियंताओं का नया छल 

  Tue, 12 Mar 201

पिछले दो सालों के अंदर केंद्र सरकार द्वारा भारतीय भाषाओं के मुंह पर जड़ा गया यह दूसरा बड़ा तमाचा है, जिसके जरिये उसने देश की राजभाषा हिंदी के साथ-साथ अन्य क्षेत्रीय भाषाओं से साफ-साफ कह दिया है कि तुम्हारी हैसियत ऐसी नहीं है कि तुम देश के ऊंचे पदों पर काम कर सको। यदि भारत के प्रशासकीय एवं अन्य पदों पर भारत की ही भाषा जानने वाला काम करने के लायक नहीं है तो फिर कौन इस लायक है? जाहिर है कि वह भाषा है अंग्रेजी, जिसे हिंदुस्तान में आए हुए अभी दो सौ साल भी नहीं हुए हैं और जिसे इस देश के महज दो प्रतिशत लोग ही जानते हैं। दो साल पहले केंद्र सरकार ने सर्वोच्च सिविल सेवा परीक्षा की प्रारंभिक परीक्षा में कुछ प्रश्न अंग्रेजी के रखकर समस्त भारतीय भाषाओं का मुंह चिढ़ाया था। इस फैसले के कारण कृषि प्रधान देश के गांवों में रहने वाले युवा इस परीक्षा से बाहर हो गए। जो थोड़ी-बहुत कसर बची थी वह मुख्य परीक्षा में अंग्रेजी को सौ नंबर की वरीयता देकर पूरी कर दी गई है। जब प्रारंभिक परीक्षा के द्वितीय प्रश्नपत्र में लगभग 12 प्रतिशत प्रश्न अंग्रेजी ज्ञान से संबंधित रखे गए थे तब छात्रों व अन्य संगठनों ने इसका विरोध किया था। सरकार के इस निर्णय के विरोध में एक याचिका दिल्ली उच्च न्यायालय ने स्वीकार की थी, किंतु सरकार ने अब तक अदालत में अपना पक्ष न रखकर मामले को लटका दिया। सरकार के फैसले का संसद में जोरदार विरोध हुआ। विपक्षी दलों ने इसे जनविरोधी फैसला बताया। शिवसेना ने तो एक कदम बढ़कर यह कहते हुए आंदोलन छेड़ने की धमकी तक दे दी है कि वह महाराष्ट्र में संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा ही नहीं होने देगी। मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री ने भी प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर अपना विरोध दर्ज कराया है। पिछले लगभग 32 सालों तक अंग्रेजी के साथ-साथ भारतीय भाषाओं के भी सम्मान के साथ चलने वाली व्यवस्था में अचानक ऐसी क्या कमी दिखाई देने लगी कि सरकार को इतना विचित्र एवं अलोकतांत्रिक निर्णय लेने के लिए बाध्य होना पड़ा? क्या सरकार ने इस दौरान की प्रशासनिक व्यवस्था की गुणवत्ता के अध्ययन के लिए कोई समिति बनाई थी, जिसकी सिफारिश पर उसे यह घोर प्रतिक्रियावादी, पश्चगामी एवं उच्चवर्ग के समर्थन वाला कदम उठाना पड़ा। उच्च न्यायालय को सरकार आखिर क्या जवाब देगी? यही कि अंग्रेजी के ज्ञान से रहित लोग उतने योग्य नहीं होते। यही कि अंग्रेजी के बिना दक्षिण भारत के राज्यों के साथ काम करने में केंद्र को दिक्कत होती है। यही कि उदारीकरण के दौर में अंग्रेजी के बिना काम नहीं चल सकता आदि-आदि। यदि सरकार की समस्त प्रशासकीय कार्य प्रणाली, भाषायी आवश्यकता एवं संवैधानिक प्रावधानों के संदर्भ में उसके इन अनुमानित तर्को को जांचा-परखा जाए, तो वे निहायत ही थोथे, बचकाने एवं यहां तक कि हास्यास्पद नजर आएंगे। आइए, कुछ ऐसा करते हैं। इससे पहले की पद्धति में भी अंग्रेजी का एक पूरा पेपर था, लेकिन उसे केवल पास करना अनिवार्य था। अन्यथा उस विद्यार्थी के अन्य विषयों की काॉपियां जांची ही नहीं जाती थीं। मूल अंतर इतना ही था कि अंग्रेजी एवं अन्य किसी एक भारतीय भाषा के पेपर के प्राप्तांक अंक सूची में जुड़ते नहीं थे। अब 1800 अंकों में 100 अंक अंग्रेजी के जुड़ेंगे। यहां छल यह कहकर किया गया है कि इसका स्तर दसवीं कक्षा का होगा। तो इस स्तर की अंग्रेजी की जांच तो पहले भी की जाती थी। फिर यह नया प्रावधान क्यों? यह इसलिए, ताकि अच्छी अंग्रेजी जानने वाला ही अंत में सफल हो सके। वैसे भी इससे पहले वाली परीक्षा में अंग्रेजी वालों के लिए तो सब कुछ खुला ही था। अब ऐसा करके उस खुलेपन को रिजर्वेशन में बदलने की घृणित चाल चली गई है। आइएएस तथा आइपीएस में भर्ती राज्यों के लिए होती है, केंद्र के लिए नहीं। इन अधिकारियों का अधिकांश जीवन अपने कैडर के राज्यों में बीतता है और वहां उनका कोई वास्ता अंग्रेजी जानने वाली तथाकथित आम जनता से नहीं पड़ता। इनमें से लगभग एक-चौथाई अधिकारियों को ही केंद्र में प्रतिनियुक्ति पर काम करने का मौका मिलता है। तभी वैश्वीकरण की तथाकथित भाषा अंग्रजी की थोड़ी-बहुत जरूरत पड़ती है। यदि बिहार के एक आइएएस को तमिलनाडु कैडर मिलने पर तमिल सिखाई जा सकती है तो क्या अंग्रेजी का पर्चा पास किए हुए युवा विद्यार्थी की अंग्रेजी को थोड़ा सुधारा नहीं जा सकता? आखिर भारतीय विदेश सेवा के अधिकारियों को विदेशों की भाषा सिखाई ही तो जाती है। यह बात एकदम झूठ है कि बिना अंग्रेजी के आज के वैश्वीकरण में काम नहीं चल सकता। मैंने पूरे पांच साल राष्ट्रपति भवन में काम किया है, जहां सप्ताह में दो-तीन बार कोई न कोई विदेशी राजनयिक आता ही रहता है। मैं सोचता हूं कि क्या राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह का काम नहीं चला? चौधरी देवीलाल को उपप्रधानमंत्री बनाने से इस बात को आधार बनाकर इन्कार क्यों नहीं कर दिया गया कि उन्हें अंग्रेजी नहीं आती। इस तरह के बहुत से प्रश्न इस अदूरदर्शी सरकार से पूछे जा सकते हैं। इस देश के ऊर्जावान युवाओं को वर्तमान सरकार के युवा आइकॉन तथा गांव की झोपड़ियों में जाकर भोजन करने वाले अपने युवा नेता से यह प्रश्न पूछना ही चाहिए कि आप भविष्य में किस तरह के लोकतंत्र का नेतृत्व करने वाले हैं, जिसमें आपके अधिकारियों के पास उनकी अपनी जबान ही नहीं होगी।
(डॉ. विजय अग्रवाल: लेखक पूर्व प्रशासनिक अधिकारी हैं)
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सबको साथ लेगी तो आगे बढ़ेगी हिंदी

नवभारत टाइम्स | Jun 23, 2014

अनंत विजय

राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने कहा था कि यह सरकार का धर्म है कि वह काल की गति को पहचाने और युगधर्म की पुकार का बढ़कर आदर करे। दिनकर ने यह बात 60 के दशक में संसद में भाषा संबंधी बहस के दौरान कही थी। अपने उसी भाषण में दिनकर ने एक और अहम बात कही थी, जो आज के संदर्भ में भी एकदम सटीक है। उन्होंने कहा था कि हिंदी को देश में उसी तरह से लाया जाना चाहिए जिस तरह अहिंदीभाषी लोग उसको लाना चाहें। यही एक वाक्य हमारे देश में हिंदी के प्रसार की नीति का आधार आज भी है और भविष्य में भी होना चाहिए। 
भाषा की राजनीति
गृह मंत्रालय के राजभाषा विभाग के 27 मई के एक आदेश के बाद हिंदी को लेकर कुछ अहिंदीभाषी राज्यों के नेताओं ने खासा हंगामा मचाया। राजभाषा विभाग ने अपने सर्कुलर में कहा था कि सरकारी विभागों के आधिकारिक सोशल मीडिया अकाउंट में हिंदी अथवा अंग्रेजी और हिंदी में लिखा जाना चाहिए। अगर अंग्रेजी और हिंदी में लिखा जा रहा है तो हिंदी को प्राथमिकता मिलनी चाहिए। इस सर्कुलर में साफ तौर पर कहा गया है कि अंग्रेजी पर हिंदी को प्राथमिकता मिलनी चाहिए। यह कहीं नहीं कहा गया कि हिंदी का ही प्रयोग होना चाहिए। आखिर इससे हिंदी थोपने जैसी बात कैसे सामने आ गई? नेताओं के साथ दिक्कत यही है कि वे किसी भी मसले की ऐतिहासिकता की पृष्ठभूमि में कोई बात नहीं कहते हैं। वे वोट बैंक पक्का करने के लिहाज से बयानबाजी करते हैं। लोकसभा चुनाव के दौरान चेन्नै के हिंदीभाषी बहुल इलाके में हिंदी में पोस्टर लगवाने वाले डीएमके नेता करुणानिधि को अब हिंदी विरोध में सियासी संभावना नजर आ रही है। 60 के दशक में जब दक्षिण भारत में हिंदी के खिलाफ हिंसक आंदोलन हुए थे, तब भी और उसके पहले भी सबकी राय यही बनी थी कि हिंदी का विकास और प्रसार अन्य भारतीय भाषाओं को साथ लेकर चलने से ही होगा, अपने आपको थोपने से नहीं। महात्मा गांधी हिंदी के प्रबल समर्थक थे और इसको राष्ट्रभाषा के तौर पर देखना भी चाहते थे, लेकिन उन्होंने भी कहा था कि हिंदी का उद्देश्य यह नहीं है कि वह प्रांतीय भाषाओं की जगह ले ले। हमारा देश फ्रांस या इंग्लैंड की तरह नहीं है जहां एक भाषा है। विविधताओं से भरे हमारे देश में दर्जनों भाषाएं और सैकड़ों बोलियां हैं। लिहाजा यहां एक भाषा का सिद्धांत लागू नहीं हो सकता। इतना अवश्य है कि राजकाज की एक भाषा होनी चाहिए। आजादी के पहले और उसके बाद हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा देने की कोशिश हुई, लेकिन अन्य भारतीय भाषाओं के विरोध के चलते वह संभव नहीं हो पाया। हिंदी राजभाषा तो बनी, लेकिन अंग्रेजी का दबदबा कायम रहा। जनता की भाषा और शासन की भाषा अलग रही। ना तो हिंदी को उसका हक मिला और ना ही अन्य भारतीय भाषाओं को समुचित प्रतिनिधित्व। हिंदी के खिलाफ भारतीय भाषाओं को खड़ा करने में अंग्रेजी प्रेमियों ने नेपथ्य से बड़ी भूमिका अदा की थी। हालांकि शुरू में हिंदी को अहिंदीभाषी हलकों से काफी साथ मिला। बांग्ला के तमाम लोगों ने आजादी से पहले हिंदी का समर्थन किया था। चाहे वह केशवचंद्र सेन की स्वामी दयानंद को 'सत्यार्थ प्रकाश' हिंदी में लिखने की सलाह हो या बिहार में भूदेव मुखर्जी की अगुआई में कोर्ट की भाषा हिंदी करने का आंदोलन हो। लेकिन, जब हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की कोशिश हुई तो बांग्ला के लोग अपनी साहित्यिक विरासत की तुलना हिंदी से करते हुए उसे हेय बताने लगे थे। बावजूद इन सबके, हिंदी बगैर किसी सरकारी बैसाखी के खुद लंबा सफर तय कर चुकी है। वह विंध्य को लांघते हुए भारत के सुदूर दक्षिणी छोर तक पहुंच चुकी है और पूर्वोत्तर में भी यह धीरे-धीरे लोकप्रिय हो रही है। सरकार अगर सचमुच हिंदी के विकास को लेकर संजीदा है तो उसे सभी भारतीय भाषाओं के बीच के संवाद को तेज करना होगा। एक भाषा से दूसरी भाषा के बीच के अनुवाद को बढ़ाना होगा। सर्कुलर जारी करने से ज्यादा जरूरी है सभी भाषाओं के मन में यह विश्वास पैदा करना कि हिंदी के विकास से उनका भी विकास होगा। सरकार को साहित्य अकादमी की चूलें कसने के तरीके ढूंढने होंगे।
दूर हो शंका
साहित्य अकादमी के गठन का उद्देश्य यह था कि वह भारतीय भाषाओं के बीच समन्वय का काम करेगी। लेकिन, कालांतर में साहित्य अकादमी ने साहित्य में अपना रास्ता तलाश लिया और भाषाओं के समन्वय का काम छोड़ दिया। एक भाषा से दूसरी भाषा के बीच अनुवाद का काम भी अकादमी गंभीरता से नहीं कर पा रही है। साहित्य अकादमी के आयोजनों की अकादमी बन जाने से भी हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के बीच समन्वय का काम आगे नहीं बढ़ पाया। नतीजा यह हुआ कि अन्य भारतीय भाषाओं की हिंदी को लेकर शंकाए दूर नहीं हो पाईं। अब वक्त आ गया है कि सरकार काल की गति को पहचाने और युगधर्म के मुताबिक आगे बढ़कर सभी भाषाओं के मन में हिंदी के प्रति द्वेष को दूर करने का प्रयास करे।
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मध्य और उच्च वर्ग ने भारतीय भाषाओं से मुंह मोड़ा: जावेद अख्तर

भाषा | Jan 26, 2014,

कोलकाता
गीतकार और शायर जावेद अख्तर ने समाज के मध्यम और उच्च मध्यम वर्ग पर हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के मुकाबले अंग्रेजी को अधिक तरजीह देने का आरोप लगाते हुए कहा कि दो जून की रोटी जुटाने के लिए जूझ रहे लोगों से हिंदी और उर्दू साहित्य के विकास में योगदान करने की उम्मीद नहीं की जा सकती। अख्तर ने कोलकाता साहित्य समारोह में कहा कि शिक्षित मध्यम और उच्च मध्यम वर्ग साहित्य, भाषा की सुंदरता में योगदान कर सकता है लेकिन उन्होंने हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं का त्याग कर दिया है। -

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फिर भाषा की राजनीति

19-06-14

उन्हें उम्मीद है कि साठ के दशक की राजनीति फिर लौट सकती है। डीएमके के नेता एम करुणानिधि को यह लगता है कि पूरे देश पर हिंदी थोपी जा रही है, वह इसे लेकर खासे नाराज हैं। भले ही उन्होंने ऐसा कोई सबूत देने की जरूरत नहीं समझी, लेकिन करुणानिधि ने यहां तक कहा कि हिंदी न जानने वालों के साथ दूसरे दर्जे के नागरिक का बर्ताव किया जा रहा है। पहले विधानसभा और फिर लोकसभा चुनाव में बुरी तरह परास्त होने वाली उनकी पार्टी अब शायद भाषा को मुद्दा बनाकर अपनी राजनीति चलाने की कोशिश कर रही है। करुणानिधि ने अपनी इस उम्मीद को छिपाया भी नहीं और यह भी कहा कि इतिहास में कई बड़े हिंदी विरोधी आंदोलन हो चुके हैं, ‘भाषा की युद्धभूमि अभी सूखी नहीं है।’ लेकिन करुणानिधि शायद यह समझ नहीं पा रहे हैं कि हिंदी विरोधी आंदोलनों के बाद के चार दशकों में बहुत कुछ बदल गया है- पूरे भारत में और तमिलनाडु में भी। अभी चंद रोज पहले ही मद्रास हाईकोर्ट में एक याचिका दायर हुई है, जिसमें सरकार के 2006 के उस फैसले को चुनौती दी गई है, जिसके अनुसार तमिलनाडु में दसवीं कक्षा तक के बच्चे स्कूल में सिर्फ तमिल भाषा ही पढ़ सकते हैं। याचिका दायर करने वालों का कहना है कि उनके बच्चों को हिंदी और दूसरी भाषाओं को जानना भी बहुत जरूरी है, क्योंकि इससे वे कहीं भी जाकर नौकरी या कोई दूसरा कामकाज कर सकते हैं। दिलचस्प बात यह है कि सिर्फ तमिल पढ़ाने का वह फैसला करुणानिधि की सरकार ने ही किया था। कई विश्लेषक यह भी मानते हैं कि साठ के दशक का हिंदी विरोधी आंदोलन, बहुत कुछ ठीक उसी दौर में उत्तर भारत में चले अंग्रेजी हटाओ उग्र आंदोलन की प्रतिक्रिया था। तमिलनाडु में यह डर पैदा किया गया था कि अगर अंग्रेजी हटी, तो उसके बदले हिंदी लाद दी जाएगी। आज देश में कहीं भी अंग्रेजी हटाओ वाली वह उग्र भावना नहीं है। तकरीबन सभी क्षेत्रों ने अंग्रेजी के रहते हुए अपनी भाषाओं को विकसित करने के तरीके सीख लिए हैं। यह ठीक है कि अंग्रेजी और भारतीय भाषाओं के कुछ पूर्वाग्रह अब भी बच गए हैं। इसीलिए केंद्र में बनी नरेंद्र मोदी की सरकार ने पिछले दिनों जब शासन की संस्कृति से अंग्रेजी के प्रभाव को कम करने का फैसला किया, तो ऐसे पूर्वाग्रहों के टूटने की भी उम्मीद जगी। निस्संदेह, भारत में भाषाओं का मसला काफी जटिल है और जब भी अंग्रेजी का प्रभाव कम करने की बात होती है, कुछ लोगों और क्षेत्रों को हिंदी थोपे जाने का डर सताने लगता है। यह सच है कि यही डर अंग्रेजी को बनाए रखता है, लेकिन यह भारतीय भाषाओं को सीधे एक-दूसरे से संवाद करने से रोकता भी है। अगर अंग्रेजी का यह वर्चस्व टूटता है, तो देश की भाषाओं के सीधे एक-दूसरे से जुड़ने के रास्ते भी खुलेंगे। फिर अभी तो कुछ छोटे-मोटे व्यावहारिक निर्देशों के अलावा केंद्र सरकार ने ऐसा कोई बड़ा फैसला भी नहीं किया कि उसकी भाषा नीति पर सवाल खड़े किए जाएं। सिर्फ इसलिए कि प्रधानमंत्री हिंदी का ज्यादा इस्तेमाल करते हैं, हिंदी लादने का तर्क जायज नहीं है। ऐसे में, मद्रास हाईकोर्ट में दायर याचिका एक बड़ी उम्मीद बंधाती है। दक्षिण भारत के अभिभावक अगर चाहते हैं कि उनके बच्चे उत्तर भारत की भाषा सीखें, तो इसका अर्थ है कि एक बहुत बड़ा बदलाव हमारे दरवाजे पर आ खड़ा हुआ है। यानी एक ऐसी पीढ़ी तैयार हो रही है, जो पूरे भारत को अपना कार्यक्षेत्र मानती है और इसमें भाषा की बाधा नहीं आने देना चाहती। क्या हम अब यह उम्मीद करें कि उत्तर भारत के अभिभावक भी अपने बच्चों को दक्षिण भारत की भाषाएं सीखने के लिए प्रेरित करेंगे?

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